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अंध गुरु

भारत बाप है, मा नही
भारत बाप है, मा नही
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नमस्कर !!
आप तो विद्वान देश के वासी । हर विद्या के जनम दाता । लिबर्ति, इक्वालिति और फ्रातरनिति मे मानने वाली पजा । भारत ! भारत का नाम सुनके आदर से सर झुक जाता है । धन्य हो गया आप से मिल कर ।
मेरा नाम लुई, लुई ब्राईल । मेरा जन्म १८०९, कुर्वे मेरा गांव । पारिस के पास ही है ।

louis_braille.

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जी नही, मै जनम से अंधा नही था । पिताजी की घोडे का जीन सीने की दूकान थी । बचपन मे मै जिद्दी था । जिद्द मे आ कर पिताजी के हाथ से जीन सीने की सुई लेने लगा । खिंचातानी मे सुई मेरी एक आंख मे लग गई । तभी एक आंख चली गई । दूसरी, पेहली आंख के ईन्फेक्शन से चली गई । बस, बिलकुल अंधेरा छा गया ।
कडी मेहनत के बाद पिताजीने मुझे अंधों की स्कूल मे भरती करवाया । वहां मै पढा और बाद मे वहीं पर ही मै प्रोफेसर बना । मुझे कुछ अधूरा अधूरा सा लगता था । मैं जो पढा, पढा रहा था, वो पूरा नही था ।
कोलोनल बार्बिएं से मिलने उन की छावनी मे गया । उन्हों ने समजाया वो कैसे सांकेतिक भाषामे कागज मे छोटे छोटे छेद करके सैनिकों को आदेश भेजते है । बस, मुझे क्या चाहिए था । उन्ही की भाषा को सुधारा । अपनी ही लिपी बना ली । छेद के बदले संकेत को उपसाया । उंगली रखते ही मालुम पडे की ये क्या लिखा है ।

Blind Bible Reader.

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अपनी स्कूल मे सिखाना चाहा । रोका गया । सरकारी मान्यता नही मिली थी । अभिमान और मद से भरे विद्वानोंने विरोध किया ।
एक छोटी बच्ची मेरे पास सिखने आती थी, जुलिएट नाम था । उसे तो सिखा ही दिया ।

kendra_cane.

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एक सभा मे मेरी परिक्षा ली गई । एक कविता मुझे दी गई । मैने लिखी अपनी लिपी मे । बच्ची जुलिएत को बुलाया गया । बिना कोई भूल, बच्ची ने कविता पढ ली । तालियों से मेरा स्वागत हुआ । नतिजा आप देखते है । दुनिया के हर देश मे मेरी लिपी मेरे नाम से ( ब्राईल लिपी ) प्रचलित है । अंधों के जीवन का सहारा बनी है ।
बहुत से फाउंडेशन, सोसाईटी बने है मेरे नाम से । आप लोग दान भी देते होंगे ।
दोस्तों, हम अंधों को उजाले से मतलब नही था । हमारे स्कूल के कमरों मे अंधकार छाया रेहता था । अंधेरे मे रेहते रेहते टी.बी. हो गया । १८५२ मे ४३ साल की आयु मे, मुझे दुनिया से जाना पडा । जब मै जा रहा था तब वो जुलिएत ही थी  मेरे पास, जो मेरा हाथ पकडे खडी थी । मै उसे रोता छोड, चला गया ।
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मित्रों, मै यहा अपना परिचय देने नही आया हु । आया नही बल्की मुझे भेजा गया है । ईस लोक की तरह उस लोक मे भी मेरा नाम हो गया है । उस लोक मे मुझे सब “ अन्धों के गुरु “ नाम से जानते है ।
आज वहा के लोग भी परेशान है । थोक मे लोग, यहां से मर के वहा आ रहे है । नये आये हुए लोग फरियाद करते है, प्रुथ्वि पर प्रजा अंध हो गई है । चारों तरफ अंधकार छाया है । मुझे कहा गया, जाओ और देखो कैसा अंधापन है ।
पेहले तो मै अपने देश फ्रांस गया, अपने गांव गया । सब नया था । मेरा घर भी नही मिला । पारिस गया, अपना स्कूल देखा । हर विषय का ज्ञान दिया जाता है, अंधों का कोंप्युटर देखा, अच्छा लगा । अपने पुतले देखे । अपनी कबर की मुलाकात के बाद निकल पडा भारत की और ।
रास्ते मे अफघानिस्तान और पाकिस्तान गया । एक नया अंधापन देखा । अंधे लोग ए.के.४७ ले के यहां वहां घुमते देखे । एक अंधे से पूछा “ ये कैसा अंधापन है ? उसने ए.के.४७ मुज पर ही तान ली । मैने सोचा ये मेरा केस नही है । ये हमारे उस लोक के वरिष्ट सदस्य महम्मद का केस है, उन्हे ही बताना पडेगा ।
अब मै आप के सामने हु । आप की बहुत ईज्जत करता हु , लेकिन यहां भी मै अंधकार ही देखता हु । कोई धन के पिछे अंध कोई नाम के पिछे । कोई कुरसी के पिछे कोई धर्म के पिछे । लालसा, मिथ्याभिमान, स्वार्थ, ईर्षा, क्या क्या नही है आंख फोडने वाले रोग ? ईसका ईलाज मेरे पास तो नही । बस, नोट कर लेता हु । अपने साथियों को बताउंगा । राम और क्रिष्ण तो ज्यादा वरिष्ट है, वो शायद कुछ न कर पाये, मेरे पोते की उमर का गांधी है । वो कुछ कर पायेगा । मै गांधी को जरूर कहुंगा वो आप के पास आए ।
धन्यवाद मुझे सुनने के लिये । मेर्सि, बोकु, बाई बाई ।

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