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हिन्दी, बिन-हिन्दी वालों की ।

भारत बाप है, मा नही
भारत बाप है, मा नही
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ये लेख ईस लेख —” हिन्दी का लैमार्कवादी विकास: राष्ट्रीय आत्मघात का एक अध्याय(१)(२) ” — की प्रतिक्रिया मात्र है । लेखक है वासुदेव त्रिपाठी ।

वासुदेवभाई नमस्कार
मैने आप के दोनों लेख पढे । हिन्दी दिवस के दौरान जो लेख आये थे उसे भी पढे थे । मेरी ये प्रतिक्रिया सब के लिये है ।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित तो किया परंतु सही ढंग से लागु नही किया । अवरोध थे लंडन में पढे नेता जो संविधान को ही हिन्दी में और भारत के अनुरूप नही लिख पाये । संविधान अंग्रेजी में, कानून सब लिखे गये अंग्रेजी ऍक्ट में, अदालतों ने केह दिया चलो भाई आदालती काम चलेगा अंग्रेजी मे । वकिल क्या करता, बन गया अंग्रेज ।
चोर और फरियादी परेशान !!! दोनों ने सोचा वकिल उल्लु बना रहे है । हम तो लाचार, हमारे बच्चे ही सबक सिखायेन्गे ।
मजबूरी नंबर १ अंग्रेजी सिखने की ।
नेता की भी मजबूरी थी । प्रजा से अलग दिखने की, कोट और टाई हिन्दी मे नही जंचते । कोट और टाई वाला हिन्दी में भाषण करता है तो कैसा लगता है !! अन्ग्रेजी ही ठिक है, और हम बाजपाई की हरिफाई नही कर सकते ।
मजबूरी नंबर २ अंग्रेजी सिखने की ।
नेता सेमी अन्ग्रेज … सचीव पूरे अन्ग्रेज …. कलेक्टर अन्ग्रेज … कमिश्नर अन्ग्रेज …. अन्ना के काले अन्ग्रेज की पूरी फौज !!!
ओर्डर ईंग्लीश, फरमान ईंग्लीश, आदान ईंग्लीश, प्रदान ईंग्लीश । छोटे कर्मचारी परेशान । ये साहब की भाषा समज नही आती, गलती हो तो अंग्रेजी मे गालियां ?!!
ईन को तो हमारे बच्चे ही निपट लेन्गे ।
मजबूरी नंबर ३ अंग्रेजी सिखने की ।
उध्योग के नेता की भी मजबूरी थी । सचीवों पटाना था, कलेक्टरों को मनाना था, कमिश्नरों से काम निकालना था ।
मजबूरी नंबर ४ अंग्रेजी सिखने की ।
जनता का क्या कसुर । जनता ने देखा अंग्रेजी जानने वालों को अच्छी नौकरी मिलती है, हिन्दी वालों को मजदूरी के भी लाले ।
हम नही हमारे बच्चे जरूर नौकरी पायेंगे ।
मजबूरी नंबर ५ अंग्रेजी सिखने की ।
अंग्रेजी की मजबूरी के टोटल के बाद अब देखते हैं हिन्दी के साथ क्या हुआ ।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना मजबूरी थी । बाघ जैसे हिन्सक प्राणी को राष्ट्रिय प्राणी बना दिया तो भाषा को भी बनाना ही था । हिन्दी बडी थी तो वो बन गई ।
शायद सरकार को लगा होगा की चलो फोर्मालिटी तो पूरी हो गई, लेकिन, अगर ये सचमुच की राष्ट्रिय भाषा बन गई तो भाषा के कारण जनता में एकता बढने के खतरे खडे हो सकते है । जनता की एकता कोई भी समजदार सरकार सहन नही कर सकती, १८५७ का अनुभव था । भले ९० साल पूराना था, ईतिहास में ईसे ताजा ही कहा जाता है ।
नतिजा, बिन हिन्दी राज्यों को चावी दी । साउथ ने तो ईस चावी से हिन्दी को लॉक ही मार दिया । दूसरे राज्योंने चावी उल्टी घुमाई, ताला नही लगा, अपनी ही भाषा को हिन्दी से आगे रख्खा । उपर से संस्क्रुत भाषा भी सर पे मार दी । किसी को पता ही नही चला की “ रामम रामो रामहा “ का क्या करना है । खद्दीधारी बोलते थे “ हमारी कुप-मंडुक भाषा हमारी मां है, हमारी संस्क्रुति है । ईसे नही भुलना है ।“ जनता के लिये, खुद के बच्चे तो विदेश मे पढते थे ।
वो राज्यों के बच्चे चार चार भाषा का बोज नही उठा पाये । वो किसी भाषा के न बन पाए और कोई भाषा उन की न बन पाई । क्या करते ? संस्क्रुत को ठोकर मारी, हिन्दी को साईड मे किया, मां की भाषा और अन्ग्रेजी पर जोर दिया ।
हिन्दी को एक टेम्प्लेट की तरह उपयोग किया । एक खाका । है, तुम , गया, आया , वाक्य पूरा करने के कुछ शब्द सिख लिये, हो गया खाका तैयार । और शब्द हिन्दी के आते हो तो ठीक है वरना मां की भाषा के शब्द डाल दो, हो गई हिन्दी ।

भला हो बेरोजगारी का, रोजगार ढुंढने के चक्कर में लोग ईस राज्य से उस राज्य में आने-जाने लगे और एक दुसरे को अपनी अपनी हिन्दी सिखाने लगे । खाका थोडा सुधर गया । अब ईस से ज्यादा तो नही हो सकता । मुल हिन्दी भाषियों को लगता होगा की हिन्दी शुध्ध नही है । भाई जो भी है आपकी भोजपूरी, मैथिली या मागधी से अच्छी है । आप को तो राहत होनी चाहिये, एक एक्स्ट्रा भाषा का बोज नही है, हिन्दी पर ही मेहनत करो और भाषा के शब्द अपना के ।

युपी, बिहार,एमपी और हरियाणा । चार कुएं से निकल कर, अब हिन्दी भारत के बडे तालाब मे आ गई है । तालाब मे तो चारों दिशा से पानी आता है अपना अपना क्षार ले कर । क्षार तो पिना होगा । हिन्दी आप के अकेले की अब नही रही । अकेले अकेले चिंता मत करो । हिन्दी कैसी है, कैसी होनी चाहिए वो खूद हिन्दी ही तय कर लेगी । भाषा तो बेहता पानी है, अपनी सपाटी पा लेगी ।

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